कार्ल मार्क्स ने जो कहा था, वह आज की भारतीय राजनीति में सही होता नजर आ रहा है। उनका कहना था कि ‘इतिहास अपने आपको दोहराता है- पहली बार एक त्रासदी की तरह और दूसरी बार प्रहसन के रूप में।’ इस कथन के आईने में देखते ही हमें तीन नाम याद आते हैं। एक बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल का, दूसरा विश्वनाथ प्रताप सिंह का और तीसरा राहुल गांधी का। बी.पी. मंडल ने पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने की सिफारिश करके इतिहास बनाया था। वी.पी. सिंह ने इन सिफारिशों को स्वीकार करके इतिहास को पहली बार दोहराया। अब राहुल गांधी, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सदारी’ की मांग करके इतिहास को दूसरी बार दोहरा रहे हैं। 1990 में जब वी.पी. सिंह ने पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण दिया था तो उससे बनने वाले इतिहास का परिणाम आज हमारे सामने है। वी.पी. सिंह को कोई याद नहीं करता। जब वे प्रधानमंत्री बने थे तो राजपूत बिरादरी में उनकी पूजा होती थी। लेकिन जैसे ही उन्होंने आरक्षण वाला कदम उठाया, उनकी छवि अगड़ी जातियों में खलनायक की होती चली गई। पहले लगा था कि पिछड़े उन्हें अपना नेता मान लेंगे। लेकिन उन्होंने लालू यादव, मुलायम सिंह और मायावती को नेता कबूल किया। और तो और, कई पिछड़े समुदायों ने भाजपा को वोट देना तो कबूल किया, लेकिन वी.पी. सिंह में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। चूंकि शुरू से ही आरक्षण का राजनीतिक मकसदों से दोहन किया जा रहा था, इसलिए धीरे-धीरे इस नीति में विकृतियां आती चली गईं। इन्हीं सब कारणों से खूबियों के बावजूद आरक्षण की नीति एक त्रासदी में बदल चुकी है।
आज राहुल गांधी वह नारा दोहरा रहे हैं, जो साठ के दशक में डॉ. लोहिया और उनके अनुयायी लगाया करते थे। वे पिछड़ी जातियों को उनकी आबादी के मुताबिक आरक्षण देने की मांग कर रहे हैं। इसी के साथ जातिगत जनगणना की मांग भी जुड़ी है। यानी पहले जातिगत जनगणना करके पिछड़ों की जातिगत संख्या का ठीक-ठीक पता लगाया जाए और फिर आबादी में उनके प्रतिशत के अनुसार आरक्षण की व्यवस्था की जाए। इसका व्यावहारिक मतलब यह हुआ कि अगर जनगणना के जरिए पिछड़ों की संख्या 45 से 55 फीसदी के बीच निकलती है तो कांग्रेस उन्हें 27 से बढ़ाकर उतना ही आरक्षण देने का दबाव डालेगी। इस तरह संविधान के अनुसार 15 फीसदी दलितों, नौ फीसदी आदिवासियों और करीब पचास फीसदी पिछड़ों के लिए नया आरक्षण मिलाकर लगभग 75 फीसदी आबादी आरक्षित हो जाएगी। ऊपर से प्रभुत्वशाली जातियां (मराठा, जाट, गूजर वगैरह) अपने लिए आरक्षण का दबाव डाल ही रही है। किसी न किसी रूप में उनकी मांग भी थोड़ी-बहुत माननी पड़ेगी। यानी अगर ये सभी मांगें मान ली जाएं तो देश की आबादी का 85-90 फीसदी हिस्सा किसी न किसी प्रकार आरक्षित हो जाएगा। पहली नजर में ही लगता है। कि यह स्थिति त्रासदी से आगे बढ़कर सामाजिक न्याय के प्रहसन में बदल जाएगी।
आरक्षण की नीति के हश्र को एक बार छोड़ भी दें तो यह सोचने की बात है कि क्या राहुल गांधी जी को इसके जरिए कोई राजनीतिक लाभ हो सकता है? क्या जातिगत जनगणना की मांग करने वाले नेताओं और दलों को इससे लाभ हो सकता है? 1990 में जब वी. पी. सिंह ने यह कदम उठाया था तो भाजपा शासन में आ गई थी। वह आरक्षण का विरोध करती तो पिछड़ी जातियों से उनका नाता टूट जाता। अगर समर्थन करती तो ऊंची जातियां उसके खिलाफ हो जातीं। इसलिए काफी सोचने के बाद उसने अपने घोषणा पत्र में आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग जोड़ी। आज वह सत्तारूढ़ होने का लाभ उठाकर इस मांग को लागू कर चुकी है। दरअसल भाजपा ने आरक्षण के सवाल पर कई दशक तक तनी हुई रस्सी पर चलने के बाद इस नीति के प्रभाव को तितर-बितर कर दिया है। आज सामाजिक न्याय और ब्राह्मणवाद विरोध की बड़ी-बड़ी बातें उसे पिछड़े वोट लेने से नहीं रोक पा रही हैं। वह पिछड़ों और अगड़ों का गठजोड़ ही नहीं बना रही, बल्कि दलितों को भी उसमें जोड़कर 50 से 60 फीसदी की हिंदू एकता बना पा रही है। राहुल जी अगर समझते हैं कि वे यह मांग करके भाजपा के समीकरण को गड़बड़ा देंगे तो वे बहुत देर कर चुके हैं। अगर कांग्रेस ने यह मांग 90 के दशक में की होती तो हो सकता था कि पिछड़ी जातियां एकबारगी कांग्रेस की तरफ हमदर्दी से देखतीं।